Saturday, November 12, 2011

आशा का दीपक -दिनकर

वह प्रदीप जो दीख रहा हइ झिलमिल, दूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

चिनगारी बन गयी लहू की बूँद जो पग से;
चमक रहे, पीछे मुड़ देखो, चरण-चिन्ह जगमग से।
शुरू हुई आराध्य-भुमि यह, क्लान्ति नहीं रे राही;
और नहीं तो पाँव लगे हैं क्यों पड़ने दगमग से?
बाकी होश तभी तक जब तक जलता तूर नहीं है;
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

अपनी हड्डी की मशाल से हृदय चीरते तम का,
सारी रात चले तुम दुख झेलते कुलिश का।
एक खेय है शेष, किसी विध पार उसे कर जाओ;
वह देखो, उस पार चमकता है मन्दिर प्रियतम का।
आकर इतना पास फिरे, वह सच्चा शूर नहीं है;
थककर बाइठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

दिशा दीप्त हो उठी प्राप्त कर पुण्य-प्रकाश तुम्हारा,
लिखा जा चुका अनल-अक्षरों में इतिहास तुम्हारा।
जिस मिट्टी ने लहू पिया, वह फूल खिलाएगी ही,
अम्बर पर घन बन छाएगा ही उच्छ्वास तुम्हारा।
और अधिक ले जाँच, देवता इतन क्रूर नहीं है।
थककर बैठ गये क्या भाई! मंज़िल दूर नहीं है।

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